Smt. Ratan Shastri

श्रीमती रतन शास्त्री

स्कूल मास्टर के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी रतनजी की परवरिश ममता और अनुशासन के मिले-जुले वातावरण में हुई जो कि समृद्ध व्यक्तित्व के विकास के लिए सर्वथा अनुकूल था। छोटी उम्र में ही विवाह हो जाने से उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर हुई। किन्तु शिक्षा इन्सान में निहित परिपूर्णता का ही प्रकट रुप है, इस दृष्टि से उन्हें शिक्षा विभूषित ही माना जाना चाहिए।

इसीलिए जब उनके पति महोदय ने भूतपूर्व जयपुर रियासत के गृह एवं विदेश विभाग के प्रतिष्ठा-प्राप्त सचिव पद से त्यागपत्र देकर एक छोटे से दूर-दराज के, पिछड़े हुए गाँव में ग्रामीण पुनर्रचना के कार्य को समर्पित होना चाहा, तो रतनजी ने भी तमाम कठिनाइयों और कष्टों में उनका साथ दिया।

शहर से दूर यह छोटा-सा गाँव था वनस्थली, जहाँ सिर्फ बैलगाड़ी में ही जाया जा सकता था। इस गाँव में शास्त्री दंपति ने अपनी ही जैसी लगन के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देकर अन्य गाँवों के विकास कार्य के लिए उन्हें उकसाया।

1929 के उस जमाने के राजस्थान में एक मध्यवर्गीय महिला द्वारा पर्दे के चलन को और गहनों को त्याग देना बहुत बड़े सास का काम था। औरों के सामने आदर्श रख, उसके अनुसार कृति करने  के लिये उन्हें प्रेरित करना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इस प्रकार, उन कठिन दिनों में भी कई महिला कार्यकर्ता सामाजिक कार्य करने के लिये तैयार हुई।

गाँव में जो काम शास्त्री दंपति ने आरंभ किया, उसमें खादी और आत्मनिर्भरता, साक्षरता प्रसार, डाक्टरी सहायता तथा सामाजिक एवं राजनीतिक जागरण के कार्यक्रम शामिल ते। 1929 में शास्त्री दंपति ने ग्रामीण विकास तथा देश के अन्य भागों में तत्सम कार्य को फैलाने के ळिए कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से जीवन कुटीर नामक संस्था की स्थापना की।

शास्त्री दंपति की पुत्री शांता की 12 वर्ष की छोटी आयु में असमय मृत्यु हो गई। शांता छोटे बच्चों को पढ़ाने में रुचि रखती थी, स्कूल खोलने का सपना देखती थी और इस स्कूल के लिए उसने अपने हाथों से 600 ईंटें भी बनायी थीं। रतनजी ने शांता का अधूरा सपना पूरा करने की प्रतिज्ञा कर ली।

यही है उस वनस्थली विद्यापीठ की जन्म कहानी जिसको लेकर रतनजी का नाम आज चारों तरफ पहुँचा हुआ है। महिलाओं की शिक्षा एवं प्रशिक्षण की एक राष्ट्रीय संस्था के रुप में इस विद्यापीठ की स्थापना 1935 में की गयी। इस नये कार्यक्रम में व्यस्त रहते हुए भी उन दिनों श्रीमती शास्त्री ने जयपुर सत्याग्राह के संगठन में प्रमुख हिस्सा लिया।

यह विद्यापीठ एक ऐसा अनोखा शिक्षा केद्र है, जहाँ महिलाओं के लिए नर्सरी से लेकर स्नातकोत्तर शिक्षा तक की सुविधा है और भारत की बुनियादी संस्कृति एवं परंपरा को हानि पहुँचाये बगैर यहाँ लड़कियों को आधुनिक शिक्षा दी जाती है।

यह विद्यापीठ पूरब के आध्यात्मिक और पश्चिम के वैज्ञानिक मूल्यों के सुव्यवस्थित मेल पर बल देता है। जनतांत्रिक मूल्यों में तथा सभी धर्मों की सारभूत एकता में श्रद्धा का निर्माण करता है और राष्ट्रीय एकात्मता के भाव के साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीय सदिच्छा और समझ को दृढ़ करता है।

छात्रावास का सामूहिक जीवन तथा विभिन्न भाषा बोलने वाली, विभिन्न जातियों, धर्मों, संप्रदायों का पालन करने वाली छात्राओं का एक ही शिक्षा क्रम का साथ-साथ अध्ययन, अपने अप में उपयुक्त श्रद्धा पैदा करने का प्राकृतिक अवसर प्रदान करता है।

1935 में जब विद्यापीठ की स्थापना हुई थी, उस समय घर की चारदीवारी में बंद लड़कियों को विद्यापीठ में ले आना और उन्हें साधारण रुप में पढ़ाना अपने आप में बहुत भारी काम था। हालाँकि उस समय भी विद्यापीठ का उद्देश्य लड़कियों को ऐसी शिक्षा देना ही रहा, जिससे उन्हें समाज में सम्मान और समान स्थान मिल सके। अब समय के साथ बदलते संदर्भों में लड़कियों को सिर्फ सामान्य रुप से शिक्षित करने से काम नहीं चलता, बल्कि दिनोंदिन आधिकाधिक स्पर्धात्मक बनते जा रहे समाज में स्पर्धा का सामना करने की क्षमता उनमें समान रुप से पैदा करना विद्यापीठ का उद्देश्य बना है।

आधुनिक समाज में मूल्यों को लेकर संकट की जो स्थिति पैदा हो गई है, उससे विद्यापीठ भली-भाँति परिचित है। उसकी राय में इस स्थिति का सामना करने के सक्षम साधनों में से एक है शिक्षा। इसलिए छात्राओं में उचित मूल्यों के प्रति अहसास जगाने की अत्यधिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए विद्यापीठ का पूरा शैक्षणिक प्रयास और कार्यक्रम जारी है। इसी संदर्भ में विद्यापीठ पूरब के आध्यात्मिक और पश्चिम के वैज्ञानिक मूल्यों के सुव्यवस्थित संयोग, सादा और सहज रहन-सहन तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व में संतुलन प्रस्थापित करने के प्रयास पर बल देता है।

इस तरह महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में वनस्थली का कार्य अपने आप में विशेष प्रकार का कार्य है। इसे साधारण स्वरुप का काम नहीं माना जा सकता और न ही इसे सिर्फ समाज कल्याणकारी।

भारत सरकार ने उन्हें 1955 में पद्मश्री से तथा 1975 में पद्मभूषण से सम्मानित कर उनके कार्य का गैरव किया है। 1990 में आप जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित की गयीं।

श्रीमती रतनशास्त्री का देहावसान 29 सितम्बर, 1988 को हुआ। आपका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ विद्यापीठ परिसर में 30 सितम्बर, 1988 को सम्पन्न हुआ।