इतिहास

वनस्थली विद्यापीठ का उदभव विशिष्ट घटनाओं की परिविति है। ग्रामपुनिनर्माण का कार्यक्रम प्रारंभ करने और साथ ही रचनातमकार्यक्रम के माध्यम से सार्वजनिक कार्यकर्ता तैयार करने की इच्छा, विचार और योजना मन में लिए हुए, वनस्थली विद्यापीठ के संस्थापक स्व. पं. हीरालाल शास्त्री ने सन 1929 में भूतपूर्व जयपुर राज्य सरकार में गृह तथा विदेश विभाग के सचिव के सम्मानपूर्ण पद को त्यागकर बन्थली (वनस्थली) जैसे सूदूर गांव को अपने भावी कार्यक्षेत्र के रुप में चुना। उनके साथ उनकी पत्नी स्व. श्रीमती रतन शास्त्री भी इस कार्य के लिए आगे आईं।

यहाँ यह कार्य करते हुए पं. हीरालाल शास्त्री एवं श्रीमती रतन शास्त्री की प्रतिभावान पुत्री 12 वर्षीय शांताबाई का अचानक 25 अप्रैल, 1935 को केवल एक दिन की अस्वस्थता के पश्चात निधन हो गया। शांताबाई से उन्हें समाज सेवा के कार्य की बडी उम्मीद थी। इस अभाव और रिक्तता की भावनात्मक पूर्ति के लिए उन्होंने अपने परिचितों मित्रों की 5-6 बच्चियों को बुलाकर उनके शिक्षण का कार्य आरंभ कर दिया और इसके लिए 6 अक्टूबर, 1935 को श्री शांताबाई कुटीर की स्थापना की, जो कि बाद में वनस्थली विद्यापीठ के रुप में विकसित हुई।

इसका नाम वनस्थली विद्यापीठ 1943 में रखा गया। यही वह वर्ष था जब कि यहाँ स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम प्रथम बार आरंभ हुए। यू.जी.सी. द्वारा वर्ष 1983 में विद्यापीठ को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया। वनस्थली विद्यापीठ की प्रथम छात्रा प्रो. सुशीला व्यास को निदेशक बनाया गया। यू.जी.सी. ने विद्यापीठ के पाठ्यक्रमों, सहगामी क्रियाओं तथा छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली संस्था को डीम्ड यूनिवर्सिट संस्था का दर्जा दिया।

वर्तमान में विद्यापीठ अकेली ऐसी संस्था है जो कि शिशु कक्षा से लेकर पी. एच. डी. स्तर तक की शिक्षा प्रदान करती है। अभी हाल ही में वनस्थली विद्यापीठ को राष्ट्रीयमूल्यांकन एवं प्रत्यानन परिषद द्वारा ए स्तर का दर्जा दिया गया है।

हमारे प्रेरणा स्त्रोत

शांताबाई




संस्थापक